सितम्बर १६, २०१८ शंका समाधान

श्री संजीव भैया जी: आज का कार्यक्रम ब्रहमलीन परम संत डॉक्टर ब्रजेंद्र कुमार जी, परम पूज्य बड़े भैया की बात से कर रहे हैं कि शास्त्रों में आया है कि मनुष्य जीवन का ध्येय आत्मज्ञान, आत्मशाक्षात्कार प्राप्त करना है तो इस ध्येय की प्राप्ति कब और कैसे करें‍‍‍‍‍?
मन चंगा तो कठौती में गंगा, अगर आपका मन चंगा है तो कठौती में भी गंगा है, गंगा में तो गंगा है ही। लेकिन, अगर मन चंगा नहीं तो ना कठौती में न गंगा में गंगा है। अंतः करण का शुद्ध होना ही मन का चंगा होना होता है।‍‍‍‍‍ अगर अंतःकरण शुद्ध हो चुका हो तो अपने अंदर भी और बाहर भी सर्वत्र ईश्वर का भास होने लगता है। जब हम साधना करते हैं तो वह मन चंगा करने की है। कथा, स्वाध्याय, कीर्तन, शुभ-कर्म, प्रवचन इत्यादि मन को एकाग्र और शुद्ध करने में सहायक होते हैं, लेकिन जीवन थोड़ा है अगर जल्दी चाहते हो तो किसी से उपासना की क्रिया सीख कर श्रद्धा और विश्वास से लग जाओ, तो जल्दी लाभ होगा और आपका जीवन बदल जाएगा। कर्म, उपासना और ज्ञान, अध्यात्म मार्ग के पथिक किसी न किसी रूप में इन में से एक मार्ग पर चल रहे हैं क्योंकि सभी साधनाएँ इन तीनों में बांटी जा सकती हैं। मार्ग तो बहुत हैं, सब में आनंद आता है, लेकिन उपासना की बात कुछ और ही है। उपासना का साधन यह विचार लेकर आता है कि प्रभु कहीं दूर नहीं वह तो हमारे हृदय में ही है, चारों ओर से अपना ध्यान हटाकर अपने हृदय में, मन को अंतर्मुखी कर, अपने प्रभु की खोज़ करना है। शुरू में द्वैत- भाव रहता है, लेकिन जैसे-जैसे साधक का अंतःकरण शुद्ध होता जाता है आत्मा की झलक उसको आत्म- विभोर कर देती है और धीरे-धीरे उसका मैं मिटता जाता है, आख़िर में वह मैं तू में लय हो जाता है, इसी को सूफी लोगों के यहां फना फिल्लाह कहते हैं और यही वह ध्येय है जो मनुष्य योनि के लिए परम आवश्यक है।

नेहा, दिल्ली से
प्रश्न १: मैं बहुत ज्यादा confuse हो जाती हूँ, कुछ समझ में नहीं आता, कभी मैं साधना करती हूँ तो मुझे बहुत अच्छा लगता है, लगता है कि सब कुछ यही है। फिर कभी friends के साथ घूमने जाते हैं, मस्ती करते हैं, तो लगता है कि यह तो बहुत ही अच्छी चीज है। फिर कभी साधन या कोई क़िताब पढ़ती हूँ उस में आता है कि मोह- माया से दूर रहना चाहिए, तो मुझे लगता है कि फिर गुरु महाराज ने क्यों लिखा है हमें गृहस्थ जीवन में रहना चाहिए?
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर: बहुत अच्छा प्रश्न है, आपने जो यह बात कही बिल्कुल सही है, गुरु महाराज ने गृहस्थ जीवन में normal जीवन जीते हुए अपने गृहस्थी के कार्य करते हुए अपनी साधना को भी आगे बढ़ाने की बात कही है। इसको शास्त्रों में प्रवृत्ति का मार्ग और निवृत्ति का मार्ग दोनों बतलाया गया है लेकिन गीता में भगवान कृष्ण ने निवृत्ति में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निवृत्ति की बात कही है और उसका practical implementation गुरु महाराज ने हमको दिया कि कैसे हम 23 घंटे दुनिया के काम करते रहें और एक घंटा पूरी तरह से इसको दें और उससे जीवन बदल सकता है। और मैंने अपने जीवन में यह होते हुए भी देखा है। तो इसमें confuse होने की बात नहीं है। मैं तो especially young लोगों को यही कहता हूं कि जो कुछ ऊपर वाले ने दिया है, उसमें हमारी बुद्धि भी है, मन भी है और यह माया की बहुत सारी चीजें भी हैं। उस का आनंद उठाने में हमें कोई guilty feel नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि यह नहीं करना है, वह वह नहीं करना है। गुरु महाराज ने सिर्फ यह कहा कि जिस बुद्धि को ऊपर वाले ने दिया है, साधना के साथ वह मंज़ती जाती है और मन भी control में आता जाता है, तो आत्मा हमें कह रही है यह ठीक है, यह ठीक नहीं है, तो जैसे गोसाई जी ने कहा- “बिन सत्संग विवेक न होई” तो वह विवेक जैसे-जैसे जागृत होता जाता है, हमारी discretionary power से हमें क्या करना है, क्या नहीं करना है, आ जाता है। तो उस आवाज को हम सुने, उससे control होकर थोड़ा करेंगे तो सांसारिक जीवन और अध्यात्मिक जीवन दोनों सुधरते चले जाएंगे। मतलब अपने मन को थोड़ा detach रखना है, अपने विवेक से काम लेना है। ये सब जो गुरु महाराज ने, भगवान ने बनाया है उस सबका भी आनंद लेना है। किसी ने यह कहा था कि दो ही जगह पूर्ण आनंद है अन्नमय कोष में, जहां जो सामने दिख रहा है, स्थूल जगत है, eat, drink and be merry या फिर आनंदमय कोष में, जहां पर पूरी तरह से प्रभु की प्रेममय लीला ही दिखाई देती है। बीच का रास्ता जो है उसमें हम ऊपर नीचे होते रहते हैं, मेरे हिसाब से हमें अपने संसार को भी बनाए रखना है और उनका हाथ भी पकड़े रखें, तो प्रवृत्ति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति प्राप्त हो जाती है। जीवन में सब चीजें उन्हीं की दी हुई हैं, सब आनंदमय ही होना चाहिए।आनंद लीजिए, खुश रहिए, गुरु महाराज हम सब पर कृपा रखें।

अशोक योगी, रतलाम से
श्री संजीव भैया जी: यह तो बहुत गुरु महाराज की कृपा है कि गुरु महाराज ने हमको एक ऐसा परिवार दे दिया है। क्योंकि जो सांसारिक परिवार भी होता है, वह संसार की इच्छाओं से ही प्रेरित रहता है, लेकिन यहां आकर ऐसा लगता है कि जैसे एक निष्काम प्रेम क्या होता है उससे हमें मिला दिया गया हो। मुझे तो सारे जीवन में सभी सत्संगियों से और संतजनों से, इतना प्रेम मिला, इतना आदर मिला,सत्कार मिला Iमुझे ऐसा लगता है कि जैसे मैं इसका अधिकारी भी नहीं था। तो इसीलिए कोशिश यही रहती है, बातचीत चलती रहे और किसी तरह से एक जो नाता है वह बना रहे। यह प्रेम की डोर उनसे भी बंधी रहे और उनके परिवार से भी बंधी रहे।

प्रश्न २: हमारा मन कहता है कि गुरु महाराज के चरणों से प्रकाश लेना चाहिए और अपना साधन यह कहता है की हृदय से प्रकाश लेना होता है, तो क्या करना चाहिए?

श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर: हमारा जो मन है वह हमें तरह-तरह की बातें, कभी कुछ कभी कुछ में भटकाता रहता है। मन बड़ा चंचल भी है, यह दुधारी तलवार है उधर भी ले जाता है इधर भी ले जाता है। कहीं से हम कुछ पढ़ लेते हैं, सुन लेते हैं, मन की भी बात चलती रहती है, लेकिन गुरु महाराज ने कहा कि हम हमेशा अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते रहे। उनका कहना यह था गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य के लिए बहुत आवश्यक है। जो हमारा साहित्य है, जो गुरु महाराज ने क्रिया हम लोगों को दी है, साधना जो हमें दी है, वह उनके जीवन में जैसा आया, जैसा उन्होंने देखा कि दादा गुरु महाराज ने उनको कैसे-कैसे आगे बढ़ाया, उसी चीज को एक package में बनाकर, उसको थोड़ा structure दे कर और वह हमारे सामने रख दी। तो यह एक proven चीज़ है। उन्होने अपने जीवन में जो पाया उसको हमें दिया। मेरे हिसाब से तो जो उन्होंने हमें बतलाया है वह ही करना चाहिए। यह विचार बहुत अच्छा है क्योंकि शक्ति तो, परम पूज्य पापा जी ने, परम पूज्य छोटे भैया ने एक जगह लिखा है कि शक्ति कई जगह से निकलती है, चरण- रज से शक्ति तो हमेशा निकलती रहती है, इसीलिए हमारे यहां पैर छूने का रिवाज भी निकल आया। मगर असली चीज जो गुरु महाराज ने बतलाई है कि, यह शक्ति जो है गुरु की आत्मा का प्रकाश है और उस प्रकाश से अपने मन को साफ करना है। तो प्रकाश हमें अपने हृदय में लेकर, अपने हृदय को निर्मल बनाना है, यह प्रक्रिया करनी है। हम लोग स्थूल में अटक जाते हैं। थोड़े गहरे जब हम ध्यान में उतरते हैं, तो कहां कोई शरीर है, कहां कोई चरण है। कहीं पर वह आज्ञा-चक्र से शुरू कराते हैं, कहीं पर हृदय-चक्र से शुरू कराते हैं, बहुत सारी बातें हैं लेकिन जैसे ही हम थोड़ा सा आगे बढ़ते हैं, तो जब ध्यान गहरा हो जाता है, तो बस प्रकाश ही प्रकाश रह जाना चाहिए, शरीर ना अपना ना गुरु का, सिर्फ प्रकाश मय। प्रकाश एक शक्ति है ऐसा गुरु महाराज ने बतलाया है, नाम रूप कोई भी हो। वही चीज है, थोड़ा सा स्थूल से अपने को उठाना है।असली बात यही है।

निधि, मुंबई
प्रश्न ३: पिता की मृत्यु के बाद मुझे जीवन से अनासक्ति सी हो गई है, मेरे जीवन में जो उल्लास और आनंद था वह मैं चाह कर भी दोबारा नहीं पा रही हूं, उसके लिए मैं क्या करूं?
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर: कुछ और सत्संगी भी हैं, मेरे बहुत करीब हैं, उनके साथ भी कुछ ऐसा हुआ और हो रहा है। यह जो शोक है हमारे ऊपर इतना छा जाता है कि बाकी की सब चीजें पीछे रह जाती हैं। अब इसको तो गुरु महाराज की कृपा से ही दूर करना होगा। हमें सत्संग क्या बताता है, हम यहां क्यों आए हैं? क्योंकि जब तक हम स्थूल में पड़े रहेंगे तब तक अपनी तकलीफ बनी रहेगी। क्योंकि हम सब जानते हैं कि एक दिन हम सबको जाना है। लेकिन हम स्थूल में इतने अटक जाते हैं कि उससे आगे नहीं बढ़ पाते। दु:ख और सुख से तो जीवन बना ही है लेकिन जब दु:ख काफी जोर का होता है, बहुत गहरा होता है, तो शोक में बदल जाता है, अब इससे अपने आप को निकालना है। एक तरह से देखा जाए तो ऐसी चीजें जो जीवन में आती हैं, जो हमारे विचारों को, हमारे मन को, एकदम पकड़ लेती हैं औरवो हमें छोड़ती ही नहीं हैं। सिर्फ गुरु महाराज की साधना और उनकी कृपा से ही हम इस स्थिति से बाहर निकल सकते हैं। उनसे ही प्रार्थना है कि हम सबको इसमें से बाहर निकालें।

श्री संजीव भैया जी: तो कल्याण मार्ग में परम पूज्य बड़े भैया कहते हैं, मैं किसी और बात पर था पर सोंचा कि अगर हम अच्छी बातें करते हैं तो हमारा विवेक जागृत हो जाता है।
“राग और प्रेम में क्या अंतर है, बहुदा लोग राग को ही प्रेम समझने लगते हैं, हमारा मन का झुकाव जिस ओर हो जाता है, हमारे अंतर्मन में बस जाता है। जो लोग हमारे विचारों से मेल खाते हैं, हमारे प्रिय हैं। कल्याण मार्ग में परम पूज्य बड़े भैया का कहना है, हम कुछ अच्छी बातें सुनते हैं तो हमारा विवेक जागृत होता है, परंतु जहां पर राग है वहां द्वेष भी है। जब तक निर्वाह ठीक-ठाक होता है, तब तक ठीक रहता है।” आगे उन्होंने कहा कि, “राग और प्रेम में अंतर है। प्रेम एक अंग की ओर नहीं देखता, उसकी दृष्टि विश्लेषण की नहीं है संश्लेषण की है। वह दृष्टि सौंदर्य को ना देख कर समष्टि सौंदर्य को देखता है। किसी परिवर्तन के कारण उसमे परिवर्तन नहीं होता, इसलिए प्रेम करने वाला व्यक्ति मिला रहता है पर उतना ही अलग रहता है। जिससे दूसरी ओर के परिवर्तन से उसमें शोक उत्पन्न ना हो। अब यह सोचने की बात है कि जो प्रेम है उसमें परिवर्तन ना हो यानी शरीर से नहीं आत्मा से प्रेम। तो किसी परिवर्तन के कारण उसमें परिवर्तन नहीं होगा। तो प्रेम करने वाला व्यक्ति, सच्चा- प्रेम, दूसरे का हित चाहता है ,उसके कल्याण की ओर देखता है— साधना में प्रवेश करने पर हमारा झुकाव स्वभावतय उन लोगों की ओर हो जाता है जो इस ओर चल रहे हैं। यह अच्छा है कि हम अपने ही विचार वालों से मिले- जुले, पर प्रेम आत्मा का प्रगट रूप है, जैसे आत्मा में कहीं मिलावट नहीं, वह तो एक अहलादिनी शक्ति है, इसी तरह प्रेम में भी कहीं बनावट या मिलावट नहीं, तो प्रेम सब से मिला रहता है और सबसे अलग रहता है। पर यह सब होना स्वभाविक है, यदि बनावट से जानबूझ कर हम किसी से अलग होते हैं, अपने को वैरागी ही समझते हैं, तो यह हमारे अंदर का द्वेष है, दोनों ही दशाएं हमारे लिए अच्छी नहीं हैं, यदि आपके व्यवहार से दूसरों को उदासीनता मालूम हो तो आप भी आत्मा के निकट नहीं पहुंचे ना पहुंच सकते। व्यवहार- कुशलता प्रेम का लक्षण है, जब तक भगवान गोपियों के बीच रहे खूब रास रचाए, चले गए तो वहां के हो गए। जिस दशा में हैं जिनके बीच में हैं उन सब में फैले हैं सबसे प्रेम है, जब नहीं हैं तो अपने में स्थित हैं। यही होनी चाहिए साधक के मन की स्थिति की हमारा संबंध उससे हो जहां कोई परिवर्तन नहीं, कोई घटाव- बढ़ाव नहीं, उतार-चढ़ाव नहीं, तभी हम प्रेम और राग का अंतर समझते हैं, तभी हम ने व्यवहार और परमार्थ का मतलब समझा।
तो मैं तो यही कहूँगा कि गुरु महाराज से प्रार्थना हम सब यही करें कि हमारी मन:स्थिति को और शोक की स्थिति को दूर करें, मेरा खुद का जो निजी अनुभव है यह रहा, जब मेरे माता-पिता नहीं रहे तो वह एक जीवन बदल देने वाली घटना हुई, लेकिन मैंने कभी उनको अपने से अलग नहीं देखा, कभी यह नहीं लगा कि वह अब मेरे साथ नहीं हैं या मेरे में नहीं हैं क्योंकि यह जीवन, यह शरीर, यह सोच,सब उन्हीं की दी हुई है तो यह सोचना कि वह सिर्फ शरीर में रहकर ही हमारे साथ हैं, यह हमारी सोच का एक सीमितपना है, उसको हमने वृहद रूप से नहीं देखा है और गुरु महाराज से यही प्रार्थना की इस स्थिति को दूर करके हमें अपने प्रेम से सराबोर करें, हमारा प्रेम जो उनके साथ था वह आज भी वैसा ही है, वह किस तरीके से हमारे साथ हैं उस को हम समझे।

पूनम जी, ग़ाज़ियाबाद से
प्रश्न ४: सन २०१३ में एक धटना हुई —– जब भी मैं meditation करती हूँ मुझे कुछ आवाजें आती हैं और बाद में वह बात पूरी हो जाती है, इसलिए अब मुझे meditation करने में भी डर लगता है।

श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर: पहली चीज तो यह है कि कभी- कभी जैसे हम अगर देखें, एक चक्कू है या जैसे आग है- अगर उस का सही इस्तेमाल किया जाए तो बहुत सारे काम हो जाते हैं, उसका गलत इस्तेमाल किया जाए तो बहुत सारे नुकसान हो जाते हैं। ऐसे ही हमारी जो मानसिक शक्तियाँ हैं उसका उपयोग करना गुरु महाराज ने मना किया है, विभूतियाँ आती हैं तरह- तरह की शक्तिएँ हमारे में आ जाती हैं, हमको कुछ सुनाई देने लगता है, दिखाई देने लगता है वगैरह, आगे की बातें। दादा गुरु महाराज ने गुरु महाराज ने यह कहा कि हमारी साधना में ऐसा हो तो उसमें कोई अचंभे की बात नहीं है। लेकिन अक्सर आपने जो चीजें बताईं उसी की वजह से, और लोगों को अगर कुछ अच्छा होने लगता है तो या दूसरों को बताने लगते हैं उनकी वाहवाही होने लगती है वगैरा- वगैरा | आपने जो मुझे कहानी बताई उसमें एक अच्छी बात तो यह है, एक अच्छी आध्यात्मिक स्थिति की बात भी हो सकती है लेकिन वही चीज अगर हमको किसी तरह के depression में ले जाए, किसी तरह की परेशानी में डाल दे, तो वह उसका negative use हो गया या उसका negative effect हो गया | अब अच्छी चीज थी अच्छी स्थिति भी थी, तो उसका एक तरह से direction गलत हो गया, आपने भी सुना होगा यहाँ अक्सर कहा जाता है कि गुरु महाराज ने हमको कहा कि हम यहाँ पर आँख में पट्टी बांध देते हैं | जिससे इस तरह की चीजें ना हो और हम इन चीजों से बचे रहें, किसी वजह से यह चीज जो उभर के आई है, वह एक आध्यात्मिक स्थिति भी बतलाती है | इन चीजों से अपने आप को effect करना, तो इसको ज़रा ignore करने की जरूरत है, मैं तो गुरु महाराज से प्रार्थना करूँगा कि आपको इस चीज से बाहर निकालें और आगे बढ़ाएं |
एक बात और थोड़ा सा मैं clear करना चाहूँगा, गुरु महाराज ने यह कहा हमारा जो यह मन है- मानसिक शक्तियाँ, हम जब मन को control करते हैं तो यह मानसिक शक्तियाँ जागृत होती हैं, लेकिन हमारा goal मानसिक शक्तियों को प्राप्त करना नहीं है, हमारा goal है आत्मिक शक्तियों को प्राप्त करना, जो हमें आत्म-साक्षात्कार आत्म-ज्ञान की ओर ले जाए | जो यह मानसिक शक्तियाँ हैं उनका problem यही है कि वह हमको distract कर देती हैं या हमको ऐसी जगह पहुंचा देती हैं जिधर से हम अपने goal यानी जो आत्म-ज्ञान, आत्म-शक्तियों की ओर जाने का था उससे हम भटक जाते हैं, यही ये कहानी बतला रही है।तो इन चीजों से थोड़ा अलग होकर आगे बढ़ने की बात की जाए | और गुरु महाराज की कृपा ज़रूर होगी। मैं तो यह समझता हूं की बहुत अच्छी स्थिति भी है, लेकिन एक रास्ते का पड़ाव समझ लीजिए वह पार करना है | और इन चीजों से कि हम को यह दिखाई दे रहा है, कुछ सुनाई दे रहा है, उनसे आगे बढ़ जाना है क्योंकि यह बातें हमें अपने ध्येय से अलग कर रही हैं। Meditation का goal होना चाहिए कि हम शांति और प्रसन्नता,आंतरिक प्रसन्नता हम में बड़े और इन चीजों से हम थोड़ा दूर रहे।

एक बार गुरु महाराज के वक्त सत्संग हो रहा था, काफी सत्संगी लोग थे एक सत्संगी उनमें से थे हाथ बड़ा अच्छा देख लेते थे। वो किसी और सत्संगी भाई का हाथ देख रहे थे, तब तक गुरु महाराज उधर आ गए उन्होंने सिर्फ देखने वालों से पूछा- क्या तुम हमारे सत्संगी का हाथ देख कर बता सकते हो? तो उन्होंने Question किया, तो वही Ques मैं करूँगा कि अगर हमें श्रद्धा और विश्वास है की अगर गुरु दरबार में चीजें बदल सकती हैं, तो यह भी बदल सकती है या तो आप इस पर विश्वास कर लें या यह भी मान सकती हैं कि मन की आवाज़ और जो असली चीज़ है उस में फर्क होता है, मन अक्सर हमें इस तरह की चीजें बतलाता है जो 100% true नहीं होतीं।मेरा तो सोचना यही है कि गुरु महाराज से प्रार्थना कर लें और उनकी कृपा से ऐसा नहीं हो, ऐसा विश्वास ले आए, प्रार्थना करते रहें। बाकी देखो जाना तो हमें है तो अगर ऐसे गए या वैसे गए, तो इसमें डर की क्या बात है।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *