सुनील, मध्य प्रदेश
प्रश्न (१): भैया जी मन में थोड़ी शंका थी कि दादा गुरु के यहां जो भंडारा होता है कि क्या हम वहां जा सकते हैं, वहां जाना सही है या नहीं जाना चाहिए या नहीं।
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर – अभी पंडित जी महाराज की जो बात हम लोगों ने सुनी कि मन ऐसी चीज है कि कहां भटक जाएगा, कहाँ अटक जाएगा उसकी ही परेशानी है। अगर हम उस स्थान तक पहुंच चुके हैं जहां पर हमको अपना ईष्ट अपना गुरु सब जगह दिखाई दे तो वहां जाने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन अगर हमारे अंदर शंकाये पैदा हो जाएं या ये हो जाए कि ये अलग वो अलग तो यह सही नहीं है। मैं हर रोज़ यहां सुनता हूँ कि मैं इधर जुड़ा हुआ हूँ, मैं उधर जुड़ा हुआ हूँ तो हम लोग की वो स्थिति नही है कि हमलोग ये समझ सकें कि सबका मालिक एक है और ध्येय सबका एक है। तब तक जब तक हम उस स्थिति पे नहीं पहुंच जाते कहा ये जाता है कि अगर अलग – अलग जाओगे, अलग – अलग चीजें पढ़ोगे अथवा अलग – अलग विचार में फंसोगे तो उससे हो सकता है कि अटकाव हो जाये। लेकिन वैसे अगर पूछा जाए कि अगर हमें आदिश्रोत से जुड़ना है तो एक दिन तो हमें ये समझना ही होगा कि हम कहाँ से शुरू करते हैं वो फर्क हो सकता है लेकिन ध्येय सबका एक ही है। सब चीज तो एक ही है।
प्रश्नकर्ता – मैं गया तो वहां पर एक दिन तो कुछ भी ऐसा लगा ही नहीं मुझे, मैंने गुरु महाराज की ही प्रार्थना की कि मुझे भी कुछ ऐसा लगे कि यहां पर आया हूँ। वहां पर ध्यान चल रहा था समाधि पर और वहां के गुरु बैठे थे तो मुझे कुछ ऐसी इच्छा हो रही थी कि मैं बार – बार जाऊँ, उनसे मिलूँ, लेकिन मन में एक कचोट सा लग रहा था कि कहीं गुरु महाराज के प्रति एक भाव है वो छूटता जा रहा है। मतलब एक द्वंद सी स्थिति अंदर पैदा हो गयी थी। उसके बारे में विचलित भी था, कुछ समझ भी नहीं पा रहा था कि क्या करूँ।
श्री संजीव भैया जी – अगर हम सब जगह गुरु महाराज का ही दरबार देखें तो ये सब चीजें हट जाएंगी।
निमेष जी, मध्य प्रदेश
प्रश्न (२) – “श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि।” कहानी थोड़ी लंबी है संक्षेप में आप तक पहुंचने का प्रयास है। जब गुरु मिलन की आस लगी जब गुरु का महत्व पता चला तो अक्सर मैं पिताजी से और आसमान से पूछा करता था कि आखिरकार मेरे गुरु कौन हैं ऐसा कौन है जो ब्रह्म विद्या मुझे सामने से बताए। तो पिताजी का विचार ये था कि बेटा गुरु उनको बनाना जो इस शरीर को त्याग चुके हों।अब 4/6/2012 को 1988 में प्रकाशित आध्यात्मिक विषय मीमांसा नामक पुस्तक खंड ५ एक ऐसे दूर के रिश्तेदार के घर प्राप्त हुई जिनको कि इस पुस्तक का कोई महत्व नही था।उस पुस्तक में गुरु महाराज जी की फ़ोटो भी थी जिसे देख कर एकदम अपना सा लगा। और उस समय हमारी माली हालत इतनी बेकार थी कि दो वक्त की रोटी का भी मुझे आसरा न था। पर मुझे डैम्पीयर नगर मथुरा जा कर एक बार गुरु महाराज के सामने साधन सीखने की बहुत लालसा जागी ये पूरी नहीं हो पा रही थी लगभग चार महीने बाद मेरे गाँव से 35 किलोमीटर की दूरी पर लालबर्रागा करके एक गांव है जिला बालाघाट में, एक नए रिश्तेदार के यहां जाना हुआ वहां पर बैठक कक्ष में मुझे गुरु महाराज की तस्वीर दिखाई दी। पूछने पर उन्होंने बताया कि सुबह, यानी शनिवार की शाम हम पहुंचे थे रविवार को सुबह सत्संग होता है, ऐसा उनके द्वारा बताया गया। आप भी साथ चलना उन्होंने कहा। साथ गए। 2012 से इसमें लगने के पश्चात् अभ्यास कभी कभी अच्छा नही रहा और कभी बिल्कुल ही नहीं रहा और कभी कभी ऐसा है ठीक चलता है। अब मुख्य परेशानी यहां आती है बड़े भैया कि दिल्ली भंडारे पर पिछले साल हुए शंका समाधान पर यह पता चला कि शरीरधारी गुरु आवश्यक है। चूंकि मैंने गुरु महाराज को ही अपना गुरु स्वीकार चुका था और मैं यह मानता था कि गुरु महाराज अभी हैं, तो मुझे मथुरा जाने की इच्छा होती थी पर ये जो शंका समाधान 2017 में, हालांकि 2013-2014 में मेरे को यह मालूम चल गया था कि अब गुरु महाराज नही रहे हैं।तो शंका समाधान जो दिल्ली में हुआ वहां पर ये पता चला कि आवश्यकता है, बिल्कुल आवश्यक है। तब अपनी निष्ठा को मैने अपने शरीरधारी गुरु पर जमाने की कोशिश की, करता रहता हूँ। उनकी कृपा है कभी कभी सफल भी हो जाता हूँ परन्तु पिताजी का वचन जो है कि बेटा शरीरधारी गुरु नहीं, तुम बनाना जो ये दुनिया को छोड़ चुके हैं, यह विचार बार बार मेरे सामने आ जाता है। इस बात को ले कर मैं काफी परेशान रहता हूँ। कभी कभी खुद को मना लेता हूँ कि सब तो एक है क्या फर्क पड़ता है। हमें तो मंज़िल से मतलब है, फिर भी कभी कभी नहीं हो पाता है। अब “जित देखूँ तित तोय, आंखें भी तेरी और तू ही दिखे,” ऐसा जब मैं गुरु महाराज से लय होता हूँ तो मैं अच्छे से कर पाता हूँ। पर शरीरधारी गुरु के साथ ये विचार मेरे आड़े आता है बार बार आता है, बार बार आता है।हालांकि मुझे ये अनुभूति है कि ये सिलसिला जो है सिलसिलेवार अपना लक्ष्य भेदता है गुरु से गुरु को। परन्तु मेरी बुद्धि और मेरा अहम आड़े आ जा रहा है और वह पिताजी का जो विचार है वह भी मेरे आड़े आता है। ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए।
श्री देवेन्द्र भाई साहब का उत्तर – देखिए आपके शंका का समाधान बहुत ही सरल है। आपके पिताजी भी सही कह रहे थे और यह भी सही है, कोई गलत नही है। लेकिन उसका अर्थ समझना पड़ता है । जो शरीर में नही है या संसार में नही है उसका अर्थ यह होता है कि जो संसार में रहते हुए भी संसार को छोड़ चुका है। उससे भी वो ही दृष्टि प्राप्त होती है। जैसे परम पूज्य गुरु महाराज ने बतलाया, जिनकी आप चित्र देखे, उन्होंने कहा कि जो मरने से पहले मर जाए वही वास्तव में आत्मज्ञानी है। उसी तरह से संसार में रहते हुए भी जो संसार छोड़ चुके है, परम पूज्य गुरु महाराज उसी को दृष्टा योग कहते है कि हम संसार में हैं, संसार के सारे कार्य कर रहे हैं फिर भी हम संसार से जुड़े हुए नहीं हैं। और जब जुड़े हए नहीं हैं तो हम संसार को छोड़ चुके हैं। तो आपको पिताजी की बात मानते हुए उसका गहन अर्थ समझना चाहिए। हर चीज का दो अर्थ होता है, एक स्थूल अर्थ होता है और एक सूक्ष्म अर्थ होता है। तो अध्यात्म में उसके सूक्ष्म अर्थ को समझने की आवश्यकता है, स्थूल से ऊपर उठने की आवश्यकता है। जहां तक रहा शरीरधारी गुरु, शरीरधारी गुरु इसीलिए कहा जाता है कि जैसे आपके पास कोई शंका है तो जो शरीर में है उसी से आप पूछ सकते हैं। ऐसा भी सम्भव है कि अगर किसी के मन में कोई शंका हो और वो परम पूज्य गुरु महाराज से हृदय से प्रार्थना करे तो कई बार कई लोगों से मैंने सुना है कि वो ह्रदय से प्रार्थना कर के सो गए और उत्तर अपने आप मस्तिस्क में आ जाता है। तो ये सत्संग की महिमा है। असल चीज यह है कि आप सही सत्संग से, सही साधना से, सही विधि से, सही डॉक्टर से जुड़ें। इसलिए दोनों में ही हमें तो कोई शंका नज़र ही नहीं आ रहा है। आपकी दोनों बातें सही हैं। तो अभी जैसा भैया ने थोड़ी देर पहले ही कहा कि सब में उन्हीं गुरु महाराज को देखें। दिल्ली में जिनको भी आपने देखा या जिनसे भी सुना या परम पूज्य भाई साहब हैं, सबके हृदय में उन्हीं परम पूज्य गुरु महाराज का निवास है और जब उनका निवास है तो मालिक तो वही हो गए। टंकी एक ही होती है, नल अलग अलग होते हैं। क्षुधा प्यास मिटानी है तो आप नल से भी मिटा सकते हैं वहां भी वही तृप्ति मिलेगी जो टंकी के पास जा कर के वहां से मिटा लें। तो वास्तव में आपको इसमें विचलित होने की भी आवश्यकता नहीं है। कोई शंका भी करने की आवश्यकता नहीं है। और अगर आप परम पूज्य गुरु महाराज का ध्यान कर रहे हैं तो उसमें भी कोई गलत नहीं है, जब तक सब में उन्ही गुरुतत्व को देख रहे हैं। ऐसा बार बार कहा जाता है कि गुरु शरीर नहीं होता है। गुरुतत्त्व वह शक्ति होती है जहां से हमें सारा ज्ञान, सारी साधना एवं सारी शक्तियां मिलतीं हैं। तो अध्यात्म जो है शरीर से ऊपर की अवस्था की बात है। सूक्ष्म अवस्था की बात है मेरे समझ में तो यही है अगर उसके बाद भी कोई शंका है तो भाई साहब से पूछिए।
श्री संजीव भैया जी – नहीं बिल्कुल सही है और आप इस बात को ले कर चलिए, फिर अगर उसके बाद भी ये बना रहता है तो किसी आगे वाले सेशन में या डायरेक्टली बात कर लीजिएगा। नमस्कार।
इंदू जी
प्रश्न (3): बहुत दिन से कोशिश कर रही थी आपसे बात करने की, आखिर आज हो ही गयी। मैं ये जानना चाहती थी कि हम कैसे महसूस करें कि हम सही जा रहे हैं हम आत्मा से जुड़ रहे हैं।
घनश्याम जी का उत्तर: गुरु महाराज ने जगह – जगह पर लिखा है कि ये मापदंड कि हम सही रास्ते चल रहे हैं कि नहीं चल रहे हैं इसका प्रत्यक्ष जो प्रमाण है वो तो आपका व्यवहार है जो बदल रहा है कि नहीं। आप में जो अवगुण या जो कमियाँ हैं वो आपकी धीरे – धीरे दूर हो रही है कि नहीं। और आपके हृदय की निर्मलता आपको महसूस हो रही है कि नहीं। यही मापदंड उन्होंने बताया है कि अगर आपका व्यवहार शुद्ध होता जा रहा है तो आप निश्चित रूप से प्रगति पर हैं।
इंदू जी – हम अपनी तरफ से कोशिश तो करते ही है और काफी हद तक लगता भी है पर कभी कभी भ्रम भी हो जाता है कि हम सही जा रहे हैं कि नहीं। अपने आपको मना लेते हैं कि हम सही हैं।
श्री संजीव भैया जी – हाँ, ये गुरु महाराज ने थोड़ा हमारे लिए, हम सबके लिए कठिन कर दिया क्यों कि यहां पे न तो तरह – तरह के प्रकाश दिखाई देते हैं, न कोई शब्द सुनाई देते हैं। आंखों पर पट्टी बांध के ले जाते हैं। परम पूज्य बड़े भैया ने तो हमेशा यही बात कही जो घनश्याम जी ने बताई कि व्यवहार ही हमारा मापदंड होना चाहिए। एक और बात है जो गुरु महाराज के दस आलोक में आई है कि हमारी आंतरिक प्रसन्नता हमारी आध्यात्मिक स्थिति के साथ बढ़नी चाहिए। आंतरिक प्रसन्नता बढ़ रही है, यानी सुख दुख से अलग हमारी स्थिति जो एक प्रसन्नता एवं आनंद की स्थिति है। मैं कही पढ़ रहा था कि अक्सर कुछ होता है तो हम दुखी हो जाते हैं और कुछ होता है तो हम खुश हो जाते हैं। फिर थोड़े दिनों बाद एक सम की स्थिति पर आ जाते हैं जो हमारी आंतरिक प्रसन्नता की स्थिति मानी जा सकती है। किसी की ज्यादा है, ऊंची है और किसी की नीची है। तो सत्संग के साथ वो धीरे – धीरे बढ़नी चाहिए। हमारा काम सिर्फ इतना होना चाहिए कि कर्तव्य बुद्धि के साथ जो बताया गया है वो करें और उनका ध्यान और चिंतन करते रहें तो उनके गुण स्वतः अपने में आते रहेंगे, यही हमारी क्रिया है यही गुरु महाराज ने बताया है।
मानसिंह जी, इंदौर
प्रश्न (4) मैं ये बोल रहा था कि जब जब मैं चिंतन करता हूँ किसी का भी, जैसे मैं गुरु महाराज का चिंतन करने बैठता हूँ तो मन में कुछ अलग तरह के विचार आने लगते हैं। मतलब चित्त वहां पे रहता नही है हट जाता है। इसके लिए क्या करूं भैया।
श्री संजीव भैया जी – तो आप चिंतन कब करते हैं एवं कैसे करते हैं।
मानसिंह जी – जी, सुबह करता हूँ या फिर शाम को करता हूँ। जैसे अपना काम है कंपनी में वहां पर भी करता हूँ। अलग टाइप के विचार आने लगते हैं वहां चिंतन कम हो पाता है।
देवेंद्र जी – हमें लगता है उनका मतलब है जब ध्यान करते हैं तब की बात कर रहे हैं।
मानसिंह जी – जी ।
देवेंद्र जी – ध्यान और चिंतन में फर्क है। ध्यान में हम एक पोजीशन में शांति से बैठते हैं सब काम छोड़ कर के जबकि चिंतन तो हर समय हो सकता है। ये अक्सर सबके ही साथ होता है। वो इसलिए होता है कि आपने कई बार प्रवचन में सुना भी होगा और पढ़ा भी होगा कि कहा जाता है कि आगे बढ़िये। जब हम जीवन में किसी भी रास्ते पर चलते हैं तो अगर हम एक ही सीन को पकड़ के बैठे रहेंगे तो मतलब हम रुके हुए हैं, और अगर सीन बदल रहा है तो मतलब हम आगे बढ़ रहे हैं। इसको कई तरह से समझाया गया है, बताया गया है कि हमारे जो संस्कार होते हैं वो धीरे – धीरे हमारे सामने आने लगते हैं। धीरे – धीरे जब संस्कार मिटने लगते हैं तब हमारा मन शांत होता है।
इसमें दो बातों का ख्याल रखना पड़ता है। एक, कि क्या आपको पता चलता है कि हमारा ध्यान भटक गया? अगर हां तो वापस उसी से शुरू करना है कि सामने से प्रकाश हृदय में आ रहा है और फिर हृदय में प्रकाश पर ध्यान करने लगते हैं। दूसरी स्थिति होती है जहां पर हमें पता ही नही चलता है और जब ध्यान से उठते हैं तो उस समय पता चलता है कि हमारा ध्यान तो कहीं और था। लेकिन हमें उस समय नही पता था, ध्यान के बाद पता होता है। जो उस समय नही पता था, वह भी ध्यान की एक स्थिति है क्योंकि आपको पता नहीं ध्यान में क्या होता है। हम अपना सुध बुध भूल जाते हैं। तो अपना सुध बुध भूल कर के एक फ़िल्म जैसी रील आप देख रहे थे आपको पता ही नहीं था कि हमारा ध्यान कहीं और है। वो तो सबके साथ होता है और वो एक अच्छी स्थिति है। काहे कि वो शुरुआत है इसका मतलब है कि आप आगे बढ़ रहे हैं। अपने शरीर का ध्यान हट गया और कहीं पर और ध्यान लगा हुआ था जो आपको पता नहीं चला। इसका मतलब कि आप आगे बढ़ रहे है। और ये सबके साथ होता है। इसमें कोई घबराने की बात नहीं है, बाद में ये भी विचार हट जाएगा। बाद में धीरे धीरे ये स्थिति भी बदल जाती है। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं फिर कभी कभी वापस भी आ जाती है। ये जो है न परिस्थिति बदलना जीवन का नियम है। इसी तरह से जब हम अध्यात्म में भी हम आगे बढ़ते हैं तो परिस्थितियां बदलती रहती हैं। और जैसे – जैसे हमारा ध्यान केंद्रित होता चला जाता है वैसे वैसे धीरे – धीरे ये अपने आप हटती चली जाती है।
श्री संजीव भैया जी – तो इसमें परम पूज्य छोटे भैया कहा करते थे कि मन से कुश्ती नहीं लड़नी चाहिए। अपना द्रष्टा भाव ले के देखते रहना चाहिए। और जैसा देवेंद्र जी ने कहा कि सत, रज और तम के प्रभाव से हमारे ध्यान की स्थिति बदलती रहती है। गुरु महाराज ने कहा कि एक समय में एक ही भाव प्रधान होता है। जब सात्विक भाव प्रधान होता है तो हमें ध्यान में आनन्द आता है, शांति मिलती है। जब राजसिक भाव प्रधान होता है तो मन चलायमान होता है, तरह तरह के विचार आते हैं और इधर उधर मन चला जाता है, चलायमान रहता है। फिर जब तामसिक भाव प्रधान होता है तो मूढ़ता ,आलस्य और मन नहीं करता है ,ये सब होता है। जैसे – जैसे हम पंचकोषी साधना में थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो सत, रज और तम का प्रभाव भी अलग अलग तरीके से सामने आता है। तो जैसा देवेंद्र जी ने कहा कि जैसे जैसे आध्यात्मिक स्थिति बदलेगी वैसे – वैसे ध्यान की अवस्था भी बदलती है। एक ही जैसे रहना तो इस तरह से माना जाता है कि हम अटक रहे हैं और आगे नही बढ़ रहे हैं। समय के साथ आध्यात्मिक स्थिति बदलने के साथ ये सब दूर हो जाएगी। इसमें यही है कि अपने कर्तव्य बुद्धि के साथ करते चलें जैसा बताया गया है।
प्रवीण जी, जमुई
प्रश्न (५): इस मायावी संसार में मनुष्य को कैसे रहना चाहिए?
श्री संजीव भैया जी: घनश्याम जी।
घनश्याम जी: देखिए, गुरु महाराज ने साहित्य में लिखा हुआ है कि यह संसार प्रकृति और पुरुष से मिलकर बना हुआ है। पूरा जो संसार है, प्रकृति और पुरुष दो ही हैं। इसमें कबीर दास जी का एक दोहा है
चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय
और उसके आगे उन्होंने बताया
चाकी चाकी सब कहे कीला कहे न कोय
बाल न बांका कर सके जो कील से सटा होय।
वास्तव में यहां कीला जो बताया वो गुरु ही हैं। अगर हम गुरु के शरण में रहेंगे तो बचे रहेंगे माया के चंगुल से। तो मुख्य बात सत्संग में एक ही है कि हम किसी तरह से गुरु की शरण हो जाएं और उनके आश्रय में आ जाएं तो उन्हें माया उतना परेशान नहीं करेगी। हम उस माया से बचे रहेंगे। संसार में काम तो हम सब करें किंतु कर्तव्य बुद्धि से करते जाएं उसमें अपना कुछ नही लगाएं। भगवान ने जो काम आपको दिया हुआ है उसको पूरी निष्ठा के साथ करें, और बस कर्तव्य बोध से ही उसको करते जाएं तो आप माया से परेशान नहीं होंगे और अपने अभीष्ट को प्राप्त करेंगे।
श्री संजीव भैया जी – गुरु महाराज ने हमे प्रवृर्ति में निवृर्ति और निवृर्ति में प्रवृर्ति की बात कही है। अर्थात घर बाहर छोड़ के जाने की भी जरूरत नहीं है और संसार में पूरी तरह लिप्त होने की भी जरूरत नही है बीच का रास्ता अपनाना है। उसी का तरीका घनश्याम जी ने बताया है।
हिमांशी, इलाहाबाद
प्रश्न (६) : भैया मेरी शंका ये है कि मैं सुबह और शाम को पूजा में बैठ जाती हूँ, पर कहीं कोई जगह function होता है शादी या पार्टी, एक महिला की शादी पड़ी थी उसमें चली गयी थी वहां पे पूजा होना तो नहीं हो पाया था, उसके बाद ध्यान लगना बहुत ही ज्यादा कठिन हो गया था। और जब भी ध्यान लगा रही थी तो मन में लग रहा था कि वैसा ध्यान क्यों नही लग रहा, ऐसा क्यों हो रहा है? क्या गुरु महाराज भी मुझसे दूर हो गए? मतलब इतना ज्यादा परेशान होना पड़ रहा था हमें कि क्या कारण है, कैसे किया जाए?
श्री संजीव भैया जी: देवेंद्र जी ।
देवेंद्र जी: ये एक चीज तो अपने मन से निकाल दीजिए कि गुरु महाराज नाराज़ हो जाते हैं। माता पिता किसी से नाराज़ नही होते। और गुरु को तो माता पिता से भी बढ़ कर हमलोग कहते हैं। हर प्रार्थना में कहते हैं ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव’। इसलिए सबसे पहले तो कभी ये मन में लाना ही नहीं है। कहानी ये सुनी होगी कि दो भाई थे। एक चले गए कोठे पर, एक चले गए कीर्तन में। तो असल चीज है कि आपका मन कहाँ पर है। शरीर से आप कहाँ हैं वह इतना इम्पोर्टेन्ट नहीं है, असल में हैं कि आपका मन कहाँ पर है। दूसरी चीज है कि जब कभी ध्यान छूट जाए तो जब हम सोने जाते हैं तो थोड़ी देर के लिए सोते – सोते भी ध्यान कर के सो सकते हैं। इस तरह से मन में यह विचार नही आएगा कि हमारा ध्यान छूट गया। और बाकी रहा तो अभी – अभी ही बात हो रही थी कि यह एक स्थिति है। जैसे- जैसे हम आगे बढ़ते रहेंगे तो हमारी स्थिति बदलती रहेगी। और स्थिति और स्थिति का बदलना शुभ संकेत है क्योंकि जबतक हमारी स्थिति नहीं बदलेगी तब तक आगे बढ़ने की इच्छा नहीं होती है। हम देखते हैं कि संसार में भी जब बच्चे जैसे क्लास में जाते हैं और कभी होमवर्क नही कर सके, डांट पड़ गयी तो इच्छा होती है कि अगली बार कुछ अच्छा कर के जाएं। तो अच्छी बात है इसमें कभी कहीं ये मन में नही लाना चाहिए कि गुरु महाराज नाराज़ हो गए।
श्री संजीव भैया जी: हिमांशी जी, कर्तव्य बुद्धि के साथ अपने बताई हुई क्रिया में लगे रहें बस बाकी गुरु महाराज कृपा करेंगे।
मुकेश कुमार , जयपुर
प्रश्न (७): मैं उनका पिताजी बोल रहा हूँ। अभी अभी नया जुड़े हैं भैया जी। कुछ लोग अभी नये जुड़े हैं तो बोले कि आप ही बात कर लो। मैं जयपुर में रहता हूँ भैया जी। मेरा नाम भिखारदास जी है। जयपुर भंडारे में सब्जी पर हमारी ड्यूटी रहती है। गाँव आ गया हूँ। यहां लोग आए हैं सब सत्संग भाई यहां पर बैठे हुए हैं, सुन रहे है सारी बातें। आज ही लोग जुड़े हैं, ये लोग बोलने में संकोच कर रहे हैं।कुछ भी शंका होगी तो लोग पूछ लेंगे। ये पढ़ने में थोड़ा लापरवाही करते है इनपर कृपा बनाए कि सदबुद्धि मिले और आगे बढ़े और ये बढ़ते रहें।
श्री संजीव भैया जी – सबको नमस्कार, मेरी तरफ से गुरु महाराज से प्रार्थना है कि सब पे कृपा करें। जो लोग भंडारों में सेवा करते हैं उनपर गुरु महाराज की विशेष कृपा रहती है। मैंने तो यहां पर यही देखा कि एक तरीका तो है कि हम साधना करें चिंतन करें ध्यान करें और उससे अच्छा साधन जो है कि हम गुरु के मिशन की सेवा करें। परम पूज्य छोटे भैया, पापा जी, इस पर बहुत ज़ोर देते थे। आप सब को मेरा प्रणाम। नमस्कार, आपलोगों से हम सब सीखें गुरु महाराज हम सब पर कृपा रखें।
राजेशकुमार, छतीसगढ़।
प्रश्न (८): सर मेरा सत्संग में कभी मन लगता है कभी नहीं लगता है। क्या करूँ? और बैठ नहीं पाता हूँ समय पर। मन में बस ऐसे ही ध्यान कर लेता हूँ।
श्री संजीव भैया जी – घनश्याम जी।
घनश्याम जी – बस गुरु महाराज ने जो आज्ञा दी है सत्संग में, आप तो बैठते रहो, मन लगे या नहीं लगे ध्यान मत तोड़ो। भैया ने अभी बताया कि कर्तव्यबुद्धि से हमको करना है। अगर समय पर नहीं बैठ पाओ तो छोटे भैया ने एक दूसरा साधन हमें दिया है, वह चिंतन का है। कि हम चिंतन भी कर सकते है। उससे भी उतना ही लाभ होता है जितना कि ध्यान करने से। चिंतन तो कभी भी किया जा सकता है उसका कोई टाइम निर्धारित नही है। जब भी आपको समय मिले। जब आप खाना खा रहे हैं या घूमने जाएं या खाली समय में हों। उस वक़्त आप गुरु महाराज का चिंतन कर सकते है। चिंतन करने से हमारी सुरति की धार उनसे जुड़ी हुई रहती है। हमे वही लाभ प्राप्त होता है जो ध्यान करने से होता है। ध्यान करने के समय इस बात का बिल्कुल भी ख्याल नही करें कि मन लग रहा कि नहीं लग रहा है बस गुरु महाराज को साक्षात् सामने बिठा के, वो साक्षात् उपस्थित हैं और उनसे प्रकाश लें जो क्रिया बताई उसे करते रहें। विचार तो आएंगे ही मन भी इधर उधर जाएगा किंतु उसकी तरफ बिल्कुल ही ध्यान नहीं दें। आप तो बस ध्यान करते रहें। ध्यान नहीं कर पाएँ कोई बात नही आप चिंतन करें उससे भी उतना ही लाभ होगा।
आयुष कुमार राजपूत, छतीसगढ़
प्रश्न (९) – प्रणाम दादाजी, मेरा नाम आयुष कुमार राजपूत, छतीसगढ़। मैं क्लास 7 में पढ़ता हूँ । हमें सत्संग में आगे जाने के लिए क्या करना चाहिए?
श्री संजीव भैया जी: अभी पढ़ाई का समय है पढ़ाई पर जोर देना चाहिए। बाकी समय आएगा तो इस सवाल का जवाब भी दे देंगे। सब तरफ से मन हटा के पढ़ाई में लगाना चाहिए। क्यों देवेंद्र जी?
देवेंद्र जी : जी भैया। अभी तो उनकी उम्र मुश्किल से 12 13 साल की होगी। तीन चार साल इंतज़ार करें। तब तक जो है कहीं भी अगर सत्संग हो रहा है, छुट्टियाँ हैं, पढ़ाई छोड़ कर नहीं। छुट्टियाँ हैं तो जैसे दरी बिछा दिया ,चादर बिछा दिया, इतना ही अभी। अध्यात्म में इससे ही तरक्की हो जाएगी। और पढ़ने के समय ऐसा कर सकते हैं, आप को बहुत है तो परम पूज्य गुरु महाराज को प्रणाम कर के पढ़ाई शुरु करिए और जब पढ़ाई खत्म हो फिर गुरु महाराज को प्रणाम करके उठिए। तो देखिए पढ़ाई में भी मन लगेगा और काम भी हो जाएगा।
सरला राजपूत, कवर्धा
प्रश्न (१०) – प्रणाम सर, मैं कवर्धा से बोल रही हूँ। जैसे हम सत्संग कार्यक्रम से भी जुड़े रहें और घर गृहस्थी भी अच्छे से चले इसके लिए क्या करना चाहिए। । उपाय बताईये।
श्री संजीव भैया जी: वैसे घनश्याम जी और बता देंगे। इसका सबसे बढ़िया example दादा गुरु महाराज दिया करते थे। जब लोग कहते थे कि हमारे काम बिगड़ जाएंगे, दो तरफ ध्यान कैसे रहेगा, कि ये तो ऐसा होना चाहिए जैसे लोग पान खाते हैं। पान खाने का काम चलता रहता है और वो फाइलों को देखते भी रहते है साइन भी करते रहते हैं, और भी काम करते रहते हैं।
घनश्याम जी: जी भाई साहब। सारे दिन मैं देखता हूँ कि महिलाएं घर के काम में ही लगी रहती हैं। और कई बार तो उनके पति भी सत्संग में नहीं होते और परिवार भी सत्संगी परिवार नहीं होता। उनकी भी कठिनाइयां हो जाती हैं। इसमें गुरु महाराज ने तो बिल्कुल स्पष्ट हिदायत दी है कि साधना आपकी चौबीस घंटे चलती रह सकती है बस सुबह आप उठते ही बिस्तर पर ही आप थोड़ी देर गुरु महाराज का ध्यान कर लें। रात को सोते वक्त आप कर लें जितना भी दो चार मिनट, पांच मिनट, दस मिनट जितना भी आप कर सकती हैं करें और सारे दिन जो आप काम करें उसमें भी आप गुरु महाराज को involve करें। कि आप जैसे भोजन बना रही हैं तो वो भी ये समझें कि मैं गुरु महाराज के लिए प्रसाद बना रही हूँ भोजन बना रही हूँ। सफाई कर रही हूँ तो गुरु महाराज आएंगे तो घर साफ रहना चाहिए गंदा नही, उनकी तैयारी कर रही हूँ कि जब उनका स्वागत करते हैं तो ये महसूस करते हैं कि वो हमारे साथ हैं। हम सफाई भी करते हैं सारे काम करते हैं तो उन्हीं के लिए हो। तो आपका ध्यान भी हर वक़्त गुरु महाराज का चलता रहेगा। वो ध्यान करने से भी ज्यादा आपको लाभ देगा। बहुत लचीलापन है इसमें कि कोई निश्चित नहीं है कि साहब आप सुबह आठ बजे से ही सब काम छोड़ के ध्यान में बैठ जाओ रात को आठ बजे बैठ जाओ और बच्चों का काम परिवार का काम छोड़ दो ऐसा कुछ नहीं है। आप सारे काम करते रहो बिल्कुल परफेक्टली, क्यों कि घर गृहस्थी में तो सारे काम ही करने पड़ते हैं। बिल्कुल निष्ठा से सबको खुश, सबको प्रसन्न रखते हुए काम करिए और बस। कहते हैं न कर से कर्म करो विधि नाना, मन राखो जहां कृपानिधाना। मन अपना भगवान गुरु महाराज के साथ रखें ताकि आप सारे काम कर सकें तो निश्चित रूप से आपकी पूजा भी होती रहेगी और आपका काम भी कोई बिगड़ेगा नहीं। बहुत आसानी से सब होगा।
श्री संजीव भैया जी: बहुत ही सुंदर प्रश्न और बहुत ही बढ़िया उत्तर, गुरु महाराज कृपा करें।
आदर्श कुमार राजपूत, छत्तीसगढ़
प्रश्न (११): प्रणाम सर, जी मेरा नाम आदर्श कुमार राजपूत है छतीसगढ़, कवर्धा से बोल रहा हूँ। क्लास 10th में हूँ पढ़ते लिखते हुए सत्संग में आगे कैसे बढ़ें और पढ़ाई में मन कैसे लगे?
श्री संजीव भैया जी: इस सवाल का जवाब वैसे देवेंद्र जी ने तो अभी दिया ही था.
देवेंद्र जी: ये सवाल तो just अभी बात हुई थी। चीज वही है कि कोई भी काम धीरे – धीरे जैसे जैसे प्रैक्टिस करते हैं वैसे – वैसे हमारे आदत में उ्तर जाती है। परम पूज्य गुरु महाराज ने भी ये लिखा है कि कोई भी काम जब आप शुरू करते हैं उस समय गुरु महाराज को हृदय से याद करके उनको प्रणाम कर लें और जब काम समाप्त करते है उस समय अगर गुरु महाराज को प्रणाम कर लें तो जितना समय आप काम कर रहे थे वो ध्यान में माना जाता है। तो उसी को पालन करते हुए जब आप पढ़ाई शुरू करते हैं तो गुरु महाराज को प्रणाम करिए पढ़ाई खत्म करते हैं उस समय गुरु महाराज को प्रणाम करिए तो उससे क्या हो जाएगा कि जितने समय आप पढ़ाई कर रहें हैं तो आपको लगेगा कि हम गुरु महाराज का काम कर रहे हैं। क्योंकि जो काम हम करते हैं उसमें कहते हैं कि द्रष्टा बन के काम करो लेकिन द्रष्टा बनने के बावजूद उसका फल कुछ न कुछ तो होता ही है । तो वो गुरु महाराज को समर्पित करते हुए चलें। बस उसी को करते हुए चलें और देखें कि उससे बहुत लाभ हो रहा है।
श्री संजीव भैया जी: कृपा करें गुरु महाराज।