शंका समाधान सत्र १७ जून २०१८
दिलीप सिंह राजपूत, छत्तीसगढ़ से
प्रश्न (१): जितना मन सत्संग में लगता है उससे कहीं ज्यादा कुसंग की ओर भी मन चला जाता है। परेशान हूँ मैं, कुसंग से मन को कैसे रोकें?
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर : मन को जो आदत पड़ जाती हैं वह बड़ी मुश्किल से छूटती हैं और उसी को छुड़ाने के लिए गुरु महाराज ने जो हमारे यहाँ एक तो गुरु से प्रेम और दूसरा साप्ताहिक सत्संगो और भण्डारो का जो सिलसिला शुरू किया, तो वो इसीलिए था की क्योंकि हमारा मन जो है वो इस तरफ झुकना नहीं चाहता। तो उसको कहीं ना कहीं अटकाना है।तो जो गुरु महाराज ने साधना बतलाई वो भी इसीलिए है कि हम और चीज़ों को छोड़ कर एक प्रकाश का ध्यान करें और इन सब चीज़ों को पीछे हटाए। फिर उसके अलावा भी एक सपोर्ट सिस्टम की तरह गुरु महाराज के यहाँ लोग आते थे तो अपने आप वो जो सोच रहें होते थे वो जिन चीज़ों में फंसे होते हैं वो पीछे छूट जाती थी। आज भी यही होता है। दादा गुरु महाराज ने, गुरु महाराज ने, ये हम सबको बताया की सत्संग, साधु-संग, कुसंग इनमें फ़र्क़ है। जिस चीज़ के हम साथ रहेंगे वैसे ही बनते चले जायेंगे। तो कुसंग का तो असर जो है हमारे जीवन पर आएगा ही आयेगा। उससे अगर हमे बचना है तो निवृत्ति में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निवृत्ति का मार्ग उन्होंने बतलाया है। रहो सबके संग लेकिन अपनी सुरति की धार कहीं और लगाए रखो। तो कोशिश हमारी यह रहनी चाहिए की हम स्थूल में अगर कहीं , संसार में ऐसी चीज़े तो आती ही रहती हैं , कि हमेशा किसी के साथ कहीं जाना है, कुछ काम करना है, तरह तरह के लोगों का साथ होता है लेकिन उस संग का जो छींटा है वो हम अपने पर आने से रोके? ये हमे सीखना है ।और उसका एक ही तरीका ये है कि अपना अंतर जो है कहीं और जुड़ा रहें और हम जहाँ जाएँ उसका वहां रहने का जो असर हो सकता था वो या तो कम हो जाएगा हीं। मैंने ये चीज़ तो अपने यहाँ के सभी संतो में देखी कि असली चीज़ ये है कि हम किसी कुसंग के छींटे में पड़े उससे अच्छा है की हम अपने आपको इतना मज़बूत और ताक़तवर बना ले की उन पर हमारा छींटा पड़े ना की हम पर उनका छींटा पड़े। तो सत्संग में आते रहने से हम इस तरह से जो हम अंतर में इस चीज़ को उस शक्ति को सोख लें तो ये हो सकता है।
सीताराम साहू, छत्तीसगढ़ से,
प्रश्न (२): सत्संग में बैठता हूँ तो परम पूज्य ये जो है काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार ये सब पीछा क्यों नहीं छोड़ता ?
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर : सत्संग में तो हम लोग बैठते ही इसीलिए हैं कि किसी तरह इनसे पीछा छुड़ायें कहीं कहीं इनको वो बोला है की ये डाकू हैं, हमारे पास जो सब है ले कर भाग जाते हैं। इन चीज़ों से बचने के लिए कोई न कोई शक्ति हमे साथ लेनी होगी क्योंकि हम जब भी इनसे बचने की कोशिश करते हैं हार ही मिलती है। हम जब तक अपने आपको अपने अंतर को इतना बलवान नहीं बनायेंगे और अपने गुरु से अपने ईश्वर से वो शक्ति नहीं लेंगे, जिससे एक तो ये है की हम ये सोचे की इन पर विजय प्राप्त हो जाए दूसरा ये है की जो अभी बात हो रही थी प्रवित्ति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति यानी एक balance बनाया जाए। जो चीज़ हमको ईश्वर ने दी है वो खराब नहीं है हम उसका खराब use करते हैं। गुस्सा या हम क्रोध की बात करें तो क्रोध हमे कई बार बच्चों को समझाने में या कोई गलत काम कर रहा हो तो उसे सही रास्ते पर लाने में काम आ सकता है। अब माँ बाप बच्चों से कभी क्रोध दिखाते हैं लेकिन प्रेम उतना ही रहता है। लेकिन उसका उपयोग करते हैं जिससे की कुछ चीज़ें जो है वो ठीक हो जाएँ। अगर हम इन चीज़ों का balance के साथ जिस चीज़ के लिए वो हमे दी गयी हैं उस तरीक़े से उपयोग करें तो ये हमारे लिए उपयोग की चीज़ें हो गयी, हमारे लिए अच्छी चीज़े हो जाएगी।। लेकिन होता यह है की हम इन चीज़ों में बहे चले जाते हैं ।क्रोध आया तो ऐसा की बाक़ी सब चीज़े भूल गए ये भी भूल गए की हम कहाँ हैं किससे बात कर रहें हैं क्या बात कर रहें हैं। तो वो चीज़ जो है उससे हमको बचना है। काम का वेग आया तो एकदम सब चीज़ भूल गए, लोभ में कितनो की लुटिया डूबी। तो वो उस चीज़ का उपयोग के बजाये, सदुपयोग के बजाये, दुरुयोग जैसा हो गया। हमे ये चाहिए ये चीज़े हमको इसलिए दी गयी हैं की हम अपने जीवन को सुधारें, दूसरों के जीवन को सुधारे । लेकिन हम उनके प्रभाव में आ कर कहीं और ही बहे चले जाते हैं । इसलिए तो ये हमे विवेक की ज़रुरत है जो कहा गया है की ‘बिनु सत्संग विवेक ना होई’। तो वो विवेक कहाँ से आए? वो शक्ति कहाँ से आए? गुरु महाराज ने हमको एक तरीका बतलाया की हमसे जुड़े रहो, हमसे शक्ति लेते रहो, और हमको किन चीज़ों के लिए इनका उपयोग करना है वो जान के आगे बढ़ो।
प्रश्न (३) : साहब, मेरा मन सत्संग में लगने के बाद फिर टूट जाता है ?
श्री संजीव भैया जी : सत्संग में मन नहीं लगता ?
प्रश्नकर्ता: लगता है ,फिर टूट जाता है, मन, इधर उधर।
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर: मन ऐसा ही है वो अपने आपको किसी एक चीज़ पे ठहराना नहीं चाहता। इधर इसको कहीं कहीं बेलगाम घोड़े की तरह से कहा गया है इसको बहुत सारी उपमा दी गयी हैं तो इसको किस तरीके से अगर हमको घोड़े पे बैठना है तो हमको तो उसको लगाम लगनी होगी थोड़ा सा उसको control करना होगा तो वो कैसे किया जाए?
गुरु महाराज ने हमको जो साधना हमको बतलाई है उसमे अपने मन को एक विचार पे ले के आने की बात है बहुत सारे विचार से हटा के एक विचार पे रखना है और वो मन नहीं चाहता उसके लिए परम पूज्य छोटे भैया कहा करते थे की कुश्ती मत लड़ो। जितना ज़ोर से प्रयास करोगे, तो ये उतना ही ये इधर उधर जाएगा। तो हमे करना ये चाहिए की हम कर्त्तव्य बुद्धि से मन लग रहा है नहीं लग रहा है, जो समय उसके लिए बना है उसमे बैठे और मन से कुश्ती लड़ने के बजाय मन को observe करे, उसको देखते रहें की वो क्या कर रहा है ।कहाँ जा रहा है ।तो ये होता है की इधर उधर जा कर फिर अपनी ये जो प्रत्याहार जो गुरु महाराज ने बताया है ,अपनी अंतर्मुखी हो कर आँख बंद करके अंतर में हमे देखना है और उस प्रकाश पर अपना focus करना है, उस पर एकाग्र करना है और अगर मन इधर उधर जाए तो उसको वापस इसी विचार पर ले आना है लेकिन अगर बहुत इधर उधर जा रहा है तो उसको छेड़ने के बजाय उसको देखते है की वो कहाँ जा रहा है किधर की बातें आ रही हैं तो अगर हम ये करेंगे तो थोड़े दिनों में मन इस क्रिया को करने से ही मन धीरे धीरे एकाग्र होगा।
शुरू में दिक्कतें आती हैं तो उसमे परेशान होने की ज़रुरत नहीं है और ये एक चीज़ जो हमारे संतों ने बताई की हमारे जो संस्कार हैं, प्रारब्ध है, वो सब तो जैसे सफाई का काम शुरू होता है। तो ये कोई कमरा है साफ़ लग रहा है मगर उसमे अगर सफाई करना शुरू करो तो धूल मिट्टी थोड़ी और दिखने लगाती है। ऐसे ही हम जब कभी ध्यान करने लगते हैं तो कभी कभी विचारों का एक तांता सा लग जाता है तो उससे घबराना नहीं चाहिए, उसे सिर्फ़ देखते रहें और कुछ टाइम के बाद वो ख़तम हो जाएगा। और भी मन की स्थितियाँ आती हैं कभी आनंद होता है कभी बिलकुल निष्क्रिय सा आलस्य होता है की बैठने का मन भी नहीं करता तो उसमे ये ही कहा है की इन सब स्थितियों में हम अगर अपने मन को देखते रहें और कर्त्तव्य बुद्धि से पूजा में बैठते रहें तो बाक़ी गुरु महाराज से ये ही प्रार्थना है की अपनी शक्ति से हमारे मन को साधने में हमारी सहायता करें ।
बदरी सिंह राजपूत, छत्तीसगढ़ से
प्रश्न (४) :प्रणाम गुरुदेव , मेरा मन तो भटक गया है ये तो भटका हुआ है। सर मन बहुत भटका हुआ है। ये अपराधी जैसा लगता है।
श्री संजीव भैया जी : तो अपराधी जैसा लगता है ऐसा बोल रहें हैं ?
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर :तो ये जो पिछला सवाल था और जो इसका जवाब है वो एक-सा ही है। मन अगर हमको बहुत अपराधबोध करा रहा है और ऐसा लग रहा है की हम बहुत भटक रहें हैं, इन सब चीज़ों से गुरु महाराज ने हमको ऊपर उठने के लिए कहा है। उस मन की तरफ ना देखें, गुरु और गुरु के प्रकाश स्वरूप और वो चीज़ जो हमको इन सब से ऊपर उठाएगी हमको शक्ति देगी, शांति देगी , प्रकाश देगी उस सब चीज़ों से अपना सम्बन्ध जोड़ना है। अपने मन से जो हम विचार ला रहें हैं जो उतने ऊँचे नहीं हैं , जो उतने अच्छे नहीं है, उनसे अपने को थोड़ा अलग करके गुरु के विचारों से अपने को जोड़ना है। गुरु से अपना सम्बन्ध स्थापित करना है और फिर एक विचार रहित अवस्था तक हमे पहुँचना है जिसमे शांति है। मन के जो खेल हैं इसमें आनंद नहीं आ रहा है या इस अपराधबोध से हम अपने को निकाल नहीं पा रहें हैं , इन सब चीज़ों से हमे ऊपर उठाना है। उसके लिए हमें उनकी ओर देखना होगा। हमे उनसे अपने आपको जोड़ना होगा और उनकी शक्ति उनके प्रकाश को अपने में लेना होगा ।और उसके लिए वो क्रिया है जो गुरु महाराज ने बतलाई है। अपने आपको उनसे जोड़े रखे तो। ये सब मन अगर अपने मन की बातों में नहीं आए की ये वो कहता हैं कि ऐसे हैं वैसे हैं। जैसे हैं, उनके पुत्र हैं उनके परिवार में हैं ,जैसे रखेंगे वैसा खुश रहें ।
जय कुमार, कवर्धा से
प्रश्न (५): ध्यान में बैठता हूँ लेकिन मन लगता नही। दो तीन साल से सत्संग में आ रहा हूँ।
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर: मैं देखता हूँ कि लोग बहुत बहुत सालों से हैं प्रश्न उनका यही रहता है कि मन एकाग्र नही होता है। सत्संग में बैठने के बाद भी ऐसा नही लगता कि हमारा ध्यान लग रहा है। जो विचार पहले आते थे वैसे ही विचार आ रहे हैं। तो दो तीन चीजें हैं जैसे हम अगर ये कहते रहें कि हमें नींद नही आ रही है, नींद नही आ रही है, नींद के बारे में सोचते रहें तो नींद नही आएगी। उससे हमको अलग हटना होगा इस विचार से कि नींद नही आ रही है कि नही आ रही हैm तब नींद आएगी। तो ऐसे ही हमारा ध्यान कब और लगा कब नही लगा ये भी अक्सर हमें पता नही लगता कि कब कुछ सेकंड के लिए, कुछ मिनट के लिए ध्यान में हम चले गए । अब फिर एक अचानक कोई और विचार आ गया तो उसमें से हट गये। अब हमें ये पता नहीं कि हमारा ध्यान असल में लगा या नही लगा। हमें हमेशा यही लगता है कि हमारा तो ध्यान तो लगा ही नहीं। ये अक्सर सुनने को मिलता है।
इसमें दो चीजें हैं कि एक तो हमारे यहां ऐसा कुछ नही होता कि कुंडलिनी का उत्थान दिखाई दे रहा हो, कोई शब्द सुनाई दे रहे हों या कोई प्रकाश दिख रहा हो कि पता लगता रहे कि भई हमारी प्रगति हो रही है। यहां ऐसा कुछ होता नहीं है गुरु महाराज ने इन सब चीजों से हमें अलग रखा है क्योंकि उससे अहंकार आता है।अगर हम यही सोचते रहे कि हम तो ध्यान में बैठने के काबिल भी नहीं हैं तो यह निरहंकारला की एक स्थिति भी है। अब वो लग रहा है कि नही वो उनके ऊपर छोड़ के हम अपना सत्संग में, पूजा में, ध्यान में बैठे और जैसा पहले कहा जा चुका है कि हम ये नही देखें कि, अब मन के विचारों से हमें ऊपर उठना है। उनकी तरफ देखें, अपने विचारों की तरफ न देखें। लेकिन अगर मन परेशान कर ही रहा है तो उससे कुश्ती लड़ने की बजाय सिर्फ उसको द्रष्टा की तरह, द्रष्टा भाव से उसे देखते रहें। वो थोड़े दिन में, कुछ टाइम के बाद थक कर अपने आप, जैसे बेलगाम घोड़ा काफी भागने के बाद इस लायक हो जाता है कि हम उस पे लगाम लगा सकें। अपने साधन को न छोड़े और जो क्रिया गुरु महाराज ने बतलाई है उसमें कर्तव्य बुद्धि से लगे रहें। अवश्य इसका लाभ होगा।
अक्सर हमें खुद पता नही लगता अगर हमारा व्यवहार सुधर रहा है, परम पूज्य बड़े भैया कहा करते थे कि यहां पर और कोई तरीका तो है नही जानने का। अगर हमारा व्यवहार सुधर रहा है तो हम सही दिशा में जा रहे हैं। अगर व्यवहार में सुधार नही हो रहा तो ज़रूर किसी से बात करके कोशिश करनी चाहिए कि क्या हमे ठीक करना है।
श्रवण गोस्वामी, छत्तीसगढ़ से
प्रश्न (६) सत्संग, ध्यान पूजा सब ठीक चल रहा है लेकिन समाज मे बैठने के बाद जो जैसा कहता है उस तरह का मन हो जाता है।
उत्तर: नमस्कार श्रवण कुमार जी। ये भीे आज प्रश्न पहले आ चुका है जो कुसंग की बात थी। अपने को संग के छींटे से कैसे बचाया जाए और दूसरे का असर हम पर , कम हो बल्कि हमारे असर दूसरों पर हो। उसके लिए हमें थोड़ा अपने अंतर में शक्ति का प्रादुर्भाव करना होगा। और वो गुरु महाराज की क्रिया से होता है। गुरु महाराज ने जो तरीके बतलायें हैं कि अपनी सुरति की धार हमेशा उनसे अगर हमारी जुड़ी रहे तो इन चीजों से हम बच सकते हैं। लेकिन शुरू में ये करना मुश्किल होता है तो दादा-गुरु महाराज, उन्होंने कहा कि नए साधकों के लिए और वैसे हम सबके लिए, वैसे तो कुसंग जो है वो बड़ा हानिकारक होता है। लेकिन अब आज के समाज में उससे बचना भी बहुत मुश्किल है। तो अगर हम अपने आसपास जैसे एक कवच होता है ये मान लें कि हमारा गुरु जो है वो हमेशा हमको घेरे हुए है और कोई चीज जो है वो पहले उनके through या माध्यम से ही आएगी। सीधी हमारे पे नही आ सकती। कोई भी उल्टा सीधा विचार हो, वो दूसरे का, गुरु महाराज उसको लें और हम तक न पहुंचे। तो वो एक तरीका है दूसरा तरीका ये है कि हमेशा उनको अपने अंतर में रखें। अपनी सुरति की धार उनसे जोड़ें रखें। तो भी इससे बच सकते हैं।
लेकिन ये सवाल बड़ा अच्छा है। दोनों ही सवाल बड़े अच्छे हैं कि अपने मन को एकाग्र कैसे किया जाए और दूसरों के विचारों से प्रभावित होने से कैसे बचा जाए। और ये हम सभी के लिए लागू होता है।सत्संग में जो आने का जो मुख्य कारण है वो यही है की अगर हममें इतनी शक्ति होती कि हम ये दोनों काम खुद ही कर सकते होते तो इसकी जरूरत नही थी, किसी और के सहायता की। लेकिन हमें सहायता की जरूरत है ,तो इस दरबार में उस सहायता, जैसे वो कृपा बरसती है तो ये शक्ति ये हम सब में उनकी शक्ति प्रवाहित होने लगती है, ऐसा देखा गया है मैंने खुद देखा है कि कैसे-कैसेे हमारे संत जो हैं अपने जीवन को सुधारते चलते हैं। और एक बात और मेरे ज़हन में आ रही थी कि जैसे एक प्रश्न जो ये पूछा गया था कि काम, क्रोध, लोभ, मद इनसे कैसे बचा जाए क्योंकि ये भी हमारे मन को प्रभावित करते हैं।
तो बाकी सब चीजें जो बताई वो तो हैं ही एक और चीज जो है वो एक तरह से और भी सरल है ,एक तरह से और मुश्किल भी है, सेवा। अगर हम गुरु की, गुरु के मिशन की, गुरु के परिवार की जब सेवा करते हैं और उसको निष्कामता के साथ करते हैं तो कई बार मैंने देखा है अपनी आंखों से कि जब हम भंडारों में भोजन की व्यवस्था कर रहे है या और कोई व्यवस्था में लगे हुए हैं तो और कोई विचार तो हम बहुत लोगों के साथ हैं मगर उस समय कोई और विचार जो है वो हमारे ज़हन में आ ही नही रहा। जैसे वो तीर्थ की बात से शुरुआत की थी आपने। तो ऐसी जगह पर जा के अगर सेवा की जाए जहां हमारे विचार जो हैं अपने आप स्वतः ही कहीं और चले जाएं और हमारा सिर्फ एक सेवा का विचार रह जाए। तो ये मैंने अक्सर देखा है, भंडारों पर भी देखा है, और भी सत्संगी भाई जो हैं वो सेवा में लगते ह तो अपनी दुख, दर्द, काम, क्रोध, मद सब पीछे रह जाते हैं। तो वो भी एक तरीका है, बहुत सुंदर तरीका है जिसमें अपना भी भला और दूसरों का भी भला।
कार्यकर्ता
प्रश्न (७): अभी मेरे साथ एक रघुनाथ जी भी जुड़े हैं, वे काम वगैरह नही करते हैं, कुछ कहीं भी job वगैरह नही करते हैं। उनके ये चक्कर पड़ता है कि जैसे वे गुरु महाराज का ध्यान वगैरह तो दोनो टाइम करते हैं कही जॉब इसलिए नही करते हैं कि वहां जाते है तो ये देखते है कि सब सांसारिक आदमी हैं और उनकी सेवा करनी पड़ती है तो उनको अच्छा नही लगता है।
श्री संजीव भैया जी द्वारा उत्तर: बात ये है कि गुरु महाराज ने कहा के हमें वैराग्य, जिस तरीक़े से पुराने जमाने में होता था कि हम अपने घर बार को छोड़ के अपना जो गृहस्थ धर्म है और जो काम हमें दिये गए हैं, कर्तव्य हमें दिये गए हैं उन सब को छोड़ के अगर हम सिर्फ साधन और अपना अध्यात्म प्रगति को ही एक अगर हम ध्येय मानें तो वो गृहस्थ धर्म निभाते हुए भी और अपनी सारी जो हमें duties दी गईं हैं उनको करते हुए भी हम कर सकते हैं। ये सारा, गुरु महाराज ने अपना जो साहित्य है उसमें बहुत सारा हिस्सा जो है वो इस चीज़ को समझाने में लगा है, उनके प्रवचनों में उनके साहित्य में बार बार ये बात आई है कि ये सोचना की हमे संसार, जैसे अभी ये बात हुई कि भई हम संसारी लोगों में जा के रहेंगे तो उनके संग का छिंटा पड़ेगा या हमारी, उनके वजह से हमारी जो साधना है उसमें फर्क पड़ेगा या उनकी सेवा करना ठीक नही है तो बात तो ये है कि अगर आध्यात्मिक स्थिति हमारी अच्छी है तो पहली चीज तो ये कि उस संग का छिंटा हम पर पड़ना नही चाहिए, दूसरी चीज ये की तब हमे समझ आना चाहिए कि आम आदमी को जिसको इसकी जरूरत है उससे तो हमे मिलना चाहिए, उसको तो हमे अपनी, जो हमने पाया है वो उससे शेयर करना चाहिए, तो उससे अलग रहने की बात तो नहीं होनी चाहिए।
बात तो ये होनी चाहिए कि हम एक उदाहरण पेश करें, लोगों से मिलें और उनको गुरु महाराज की शक्ति से अवगत कराए । शक्ति या जो भी कुछ हमें उनसे मिला है वो उनसे शेयर करें और उनका भी जो, जिन चीजों से उन्हें परेशानियां हो रहीं हैं उससे हटा के इस तरफ हम उनको लगाए। तो संसार से भागने की बात तो गुरु महाराज ने बिल्कुल कही ही नही। ये कही की प्रवृत्ति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति। संसार में रहते हुए भी कमल की तरह रहा जाए । तो देखना यही है कि हम गुरु महाराज की बताई हुई कुछ बातों को तो अमल कर लें जो हमें ठीक लग रही हैं।और बाकी जो चीजें हैं वो तो अपने मन से हम करते रहें फिर तो हम फिर मनमुखी ही रहे गुरुमुखी नहीं रहे । जो चीज उन्होंने बतलाई है कि संसार से attachment कम करना है, उससे जो हमारा लगाव है राग है, वो कम करना है। वैराग्य तो उन्होंने सिर्फ ये बतलाया कि अपने मन को उस से हटा के किसी और चीज में यानी गुरु में लगा देना। वो जो कमल की तरह से रहने की जो बात है कि रहे तो तालाब में ही, गन्दे पानी में ही लेकिन उसका उससे ऊपर और उसका कोई असर नही हो। ऐसी स्थिति अपने अंतर में पैदा करनी है। ये चीज गुरु महाराज ने कहीं नही कही, बल्कि परम पूज्य बड़े भैया, परम पूज्य छोटे भैया सब अपना जो गृहस्थी का काम, संसार का, यानी आफिस का काम सब किया और उसके साथ आध्यात्मिक प्रगति भी की। और खुद की ही नही बल्कि और सबकी भी प्रगति में और उनकी वजह से बहुत लोगों का उद्धार हुआ। ऐसा ही जीवन हमारा होना चाहिए।
प्रश्न(८): भैयाजी, परम पूज्य पापाजी जब पढ़ाते थे कॉलेज में तो उस समय उनके स्टूडेंट्स को भी अध्यात्म का फ़ायदा होता था क्या?
उत्तर: अभी एक दो दिन पहले ही मैं किसी से ये कह रहा था, उन्होंने कहा कि हमारे ऑफ़िस में आप आ के जो उनके साथ के लोग हैं उनको सत्संग के बारे में बतलाइये। तो पापाजी ने दो example दिए उसमें एक यह था कि पापा जी ने जब बापू नगर मैं रहते थे यूनिवर्सिटी के पास ही था तो यूनिवर्सिटी का क्वार्टर उनको allot हुआ तो उन्होंने मना कर दिया। तो लोगो ने पूछा कि वो सस्ता भी रहेगा बड़ा भी है तो आप वहां क्यों नही जा रहे हैँ? तो बोले कि वहाँ तो किसके घर में क्या सब्ज़ी बन रही है क्या बन रहा है वो सबको पता रहता है। जब वो देखेंगे कि इतने लोग आते है तो तरह तरह की बातें होंगी। क्योंकि, लोगों की समझ में तो आएगा नहीं और वो उसको अपने अपने तरीके से देखेंगे और तरह तरह की बातें होंगी तो उन्होंने जो ऑफ़िस का काम है और जो सत्संग का काम है उसको बिल्कुल अलग रखा।
एक और कल परसों ही में व्हाट्सएप्प पे देख रहा था परम पूज्य छोटे भैया के साथ के एक थे वे दोनों मिल के एग्जामिनर की तरह से किसी यूनिवर्सिटी में गए। तो वहां से लौट रहे थे तो लौटते में सत्संगियों को पता लग गया तो वे स्टेशन पर मिलने आ गए। अब ये जो साथ वाले थे प्रोफेसर साहब उनको बड़ा अचंभा हुआ कि भई ये क्या है, तो पूछा भाई नरेंद्र ये तो तुम्हारा स्वरूप पहले कभी देखा नहीं, ये क्या है? तो बोले कि ‘ये कुछ नहीं, मैं तो पोस्टमैन हूँ लोगों की चिट्ठी लेता हूँ और दूसरी तरफ दे देता हूँ।’। तो काफी उनके करीब थे मगर उनको कभी ये पता नही लगा कि इनका इस तरफ भी रुझान है या क्या स्थिति है। तो वही चीज स्टूडेंट्स पे भी लागू होती है कि कभी उन्होंने ये नही बताया कि मैं अध्यात्म में कोई स्थिति है या सत्संग में क्या हैं। तो वो दोनों चीज़ों को अलग रखा। अब रही बात ये कि उनके अगर स्टूडेंट्स हैं उनके अगर साथ के लोग हैं तो उनको आध्यात्मिक सहायता मिलती है या नही। अब वो तो मैं ये समझता हूँ कि दो बातें हैं। लेना और देना। तो देने वाला अगर तैयार हो मगर लेने वाला तैयार नही हो तो भी वो लेन-देन नही हुआ। तो इन लोगो के संग का छींटा तो लगता है लेकिन वो रिसीवर हो तभी पहुंचता है। जैसे हम तो कहते हैं, लोगों को ये कहा जाता है कि कृपा तो हमेशा बरस रही है, हमेशा बरसती रहती है लेकिन अब वो पात्र होना चाहिए, पात्र उस तरफ oriented होना चाहिए । अब वो पात्र उल्टा पड़ा है तो कुछ नही आएगा, पात्र अगर छोटा है तो बहुत कम आएगा, इस तरह से पात्रता की भी बात है और हम किस तरफ देख रहे हैं इसकी भी बात है।
प्रश्न – पूजा और संसार में कैसे बैलेंस रखें। या रूहानी कार्य और सांसारिक कार्य दोनो में बैलेंस कैसे रखें।
उत्तर – पहली चीज तो ये कि जब तक हम इन दोनों चीजों में फ़र्क़ देखते रहेंगे तब तक ये अलग हैं। एक स्थिति साधन करते करते ये आ जाती है कि हम जो भी कुछ कर रहे है वो उसी के लिए कर रहे हैं। तो अगर हम बच्चों को पढ़ा रहे हैं या घर के काम कर रहे हैं वगैरह वगैरह तो उसमें ये दो तीन बार example आ चुका है मगर फिर बता देता हूँ। Basically, हमारी जो आध्यात्मिक प्रगति है वो सिर्फ कनेक्शन से और उनकी उपस्थिति महसूस हो उससे होती है तो उसके लिए न तो कोई बहुत ज्यादा नाटक करने की जरूरत होती है, न कोई बहुत ज्यादा अपने आपको वेष बनाने की जरूरत है, या घर छोड़ के कहीं और जाने की जरूरत है, मुख्य चीज ये है कि अगर आप जहां हो वहां बैठ के अगर कनेक्शन है, उनकी उपस्थिति महसूस हो रही है तो वो जो घर छोड़ के और कंदरा में बैठ रहा था वो किस लिए बैठ रहा था? कि मेरे को ये सब डिस्ट्रैक्शन नहीं हो तो मैं हमेशा ये महसूस करता रहूंगा कि मैं कनेक्टेड हूँ और उपस्थिति है।तो गुरु महाराज ने ये कहा कि वो चीज तो तुमको घर बैठे भी मिल सकती है और सारे काम करते हुए भी मिल सकती है, तो दादा गुरु महाराज बहुत अच्छा एक उदाहरण दिया करते थे कि पुराने जमाने में पान खाया करते थे। पान खाते रहे और फाइलों में sign (दस्तखत) भी होते रहे बात वात भी होती रही, और काम भी होते रहे। तो अध्यात्म का कनेक्शन की जो बात है वो ऐसे हो जैसे हम पान खा रहे हैं बाकी काम भी हो रहे हैं। लोग ये प्रश्न भी करते हैं कि अगर हम इस तरफ लग जाएंगे तो बाकी चीजें तो पीछे रह जाएंगी बाकी सारे हमारे काम भी खराब हो जाएंगे। वो कहा करते थे कि भई पान खाने वाला बाकी सारे काम नही करता है? पान भी खा रहा है बाकी सारे काम भी कर रहा है तो हमारा जो कनेक्शन है जो प्रेजेंस है जो सुरति की धार उनसे मिली हुई है उसके लिए न तो कोई ज्यादा प्रदर्शन करने की जरूरत है न कोई बाकी चीजों को हटाने की जरूरत है एक तो उन्होंने गृहस्थ लोगो के लिए ये कहा कि भई तेईस घंटे तुम घर का काम करो, अपने और काम करो और थोड़ा सा टाइम मुझे दे दो उस समय बाकी सब भूल जाओ।अब होता ये है हम हर चीज में उसको इस तरीके से लाने लग जाएं कि बाकी काम ठीक नही हो तो ये तो गलत है। बल्कि जब हम सत्संग करेंगे, या साधना किसी भी तरह की करेंगे तो एकाग्रता बढ़ेगी विवेक बढ़ेगा और चीजें बढ़ेंगी जिससे काम और ठीक हो। हमारे जो व्यवहार हैं, वो सुधरेंगे। हमारे जो रिलेशनशिप हैं वो बेहतर होगी। तो जैसे अभी कहीं टीवी पे ही सुन रहा था कि असली जो चीज़ है कि आदमी अच्छा मनुष्य कैसे बने? अच्छा मनुष्य बनने के लिये काम करना है न कि मनुष्यता या अपने कर्तव्यों को छोड़ के कहीं जा के बैठ जाओ। तो अक्सर ये होता है कि कोई मनुष्य इस तरफ झुकता है तो लोग ये सोचने लगते है कि ये तो सब छोड़ छाड़ के इसमें लग जायेगा। गुरु महाराज ने कहा कि नहीं ऐसा नही है इसकी जरूरत नही है।और अपने व्यवहार को सुधारने की तो सबको जरूरत है अपने काम को ठीक से करने की तो सबको जरूरत है। इसके लिए भी ये इतना ही जरूरी है।
Great!
Pp bhaiya ji ko sadar pranam, my comment is……………….
1.soundis clear but volume is low. 2.some time meanwhile intrrupted in the sound beeping and noising.
3.sometime meanwhile bhajan intrrupe in the question hour. But sound is ok bhaiya ji
बहुत ही सुंदर सत्र ।